दक्षिण अफ्रीका की घटना ने महात्मा गाँधी को सत्याग्रही बना दिया
महात्मा गाँधी विलायत यानी लंदन से कानून की पढ़ाई कर भारत पहुँचे । उन्होंने बंबई ( मुंबई ) में अपनी बैरिस्टरी का धंधा शुरू किया । फिर वे राजकोट आ गए । उन्हें दक्षिण अफ्रीका के एक भारतीय सेठ अब्दुल्ला के एक केस में पैरवी ( वकालत ) करने का काम मिला और वे 1893 में भारत से दक्षिण अफ्रीका के लिए पानी के जहाज से प्रस्थान कर गए । इस तरह , गाँधीजी अब्दुल्ला के एक दीवानी मामले में कानूनी कार्रवाई करने हेतु डर्बन पहुंच गए । दक्षिण अफ्रीका की न्यायालय - व्यवस्था की जानकारी कराने के लिए गाँधीजी को डर्बन के न्यायालय ले जाया गया । गाँधीजी बढ़िया विलायती सूट पहने हुए थे । इसके साथ सिर पर उन्होंने पगड़ी बाँध रखी थी जो उस सूट के साथ मेल नहीं खाती थी । यह भारत की परंपरा रही है कि नंगे सिर घर के बाहर नहीं जाया जाए । न्यायालय में जज उन्हें बार - बार घूर - घूरकर देखता रहा और कुछ देर बाद एकाएक गरजा , “ अदालत में अपनी पगड़ी उतारकर बैठो । " गाँधीजी ने अपनी पगड़ी उतारना स्वीकार नहीं किया । उन्होंने पगड़ी पहनने के अपने अधिकार की हिमायत की और अड़े रहे । यह बात अखबारों में छपी । उनका नाम एक साहसी भारतीय के रूप में फैल गया । यह रंगभेद के खिलाफ गाँधीजी का प्रतिरोध था । वे पगड़ी पहने हुए ही अदालत से बाहर निकल आए । लगभग एक सप्ताह बाद इस केस के संबंध में गाँधीजी को डर्बन से प्रिटोरिया जाना था । अब्दुल्ला सेठ ने उन्हें रेलवे स्टेशन पहुँचाया । प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर उन्हें डिब्बे में बैठाया
और सलाह दी कि खर्च का खयाल नहीं करके वे अपने लिए बिस्तर भी सुरक्षित करा ले । गाँधीजी का अपना विस्तर बंधा था । इसलिए , मितव्ययी गाँधीजी ने सेठ का अधिक खर्च कराना उचित नहीं समझा । नेटाल की राजधानी मेरिटबर्ग तक यात्रा सकुशल पूरी हुई । यहाँ रात हो गई । डिब्बे का परिचारक बिस्तर के लिए पूछने लगा । बिस्तर है , यह कहकर मोहनदास करमचंद गाँधी ने परिचारक को मना कर दिया । एक गोरे यात्री ने डिब्बे में प्रवेश किया और एक भारतीय ( अश्वेत ) को सहयात्री के रूप में देखकर उसकी त्योरियाँ चढ़ गई । तीसरे दर्जे के डिब्बो की ओर इशारा करते हुए उसने कहा , " वहाँ जाओ । " गाँधीजी ने साफ सुधरी अँगरेजी भाषा में कहा , " मेरे पास फर्स्ट क्लास का टिकट है । मैं फर्स्ट क्लास में ही यात्रा करूंगा । " गोरे यात्री ने पुलिस को बुलाने की धमकी दी , पर गाँधीजी नहीं झुके । उन्होंने कहा , “ आप बुलाना चाहें तो पुलिस बुलाइए । मैं अपनी इच्छा से तो यहाँ से हदूंगा नहीं । " सिपाही बुलाया गया और उसने हाथ पकड़कर , धक्का मारकर , सूटेड - बूटेड गाँधीजी को डिब्बे से बाहर निकाल दिया । उनका सामान भी बाहर फेंक दिया गया । गाँधीजी ने कड़ाके के जाड़े की वह पूरी रात प्रतीक्षालय में काटी । जाड़े में गाँधीजी ठिठुरते रहे , क्योंकि उनका कोट भी उनके सामान के साथ चला गया था । कमरे में रोशनी भी नहीं थी । गाँधीजी के जीवन में यह क्रांति की रात थी । वे सोच रहे थे कि मनुष्य न समझनेवाली रंगभेद की दुर्नीति से लोहा लूँ या चुपचाप स्वदेश लौट जाऊँ । कर्तव्यपथ से विमुख न होने का निर्णय करके गाँधीजी ने अपनी रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करना ही उचित समझा । उन्होंने रेलवे के जनरल मैनेजर के नाम विस्तार से तार लिखकर भेजा । अब्दुल्ला सेठ को भी उन्होंने सूचना दी । अब्दुल्ला सेठ के वहाँ परिचित व्यापारी गाँधीजी के पास पहुंच गए । उन्होंने कहा , " ऐसी घटनाएँ तनिक भी अनहोनी नहीं है , आए दिन होती रहती है । " प्रवासी भारतीयों की बातें सुनकर मोहनदास करमचंद गाँधी का संकल्प और दृढ़ हो गया कि वे रंगभेद के विरुद्ध लड़ेंगे । इस घटना ने उन्हें सत्याग्रही बना दिया और वे जीवन भर सत्य के लिए लड़ते रहे ।
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