स्वामी सहजानंद सरस्वती :किसानों के हित चिंतक
Swami Sahajanand Saraswati: Concern for the farmers
जीवन परिचय सहजानंद सरस्वती का जन्म 1889 म महाशिवरात्रि के दिन उत्तर गाजीपुर जिला के देवा ग्राम में हुआ था । इनके बचपन का नाम नवरग था । उनके पिता का नाम बेनी राय था । इनके पिताजी एक मध्यम किसान या वंश परम्परा से ये जुझौतिया ब्राह्मण थे । इतिहासकारों का कहना है कि जुनौतिया लोग पहले पंजाब में यौोयगण के रूप में सिकन्दर के आक्रमण के समय आयाद थे । सिकन्दर से संघर्ष के दरम्यान ये उजड़ कर मालवा क्षेत्र में आ गए । युद्धप्रिय होने के कारण उन्हें जुझौतिया अर्थात जूझनेवाला कहा गया । देवा ग्राम में बसने के बाद उनके पूर्वज अपने समतुल्य ब्राह्मण के दूसरी उपजाति भूमिहार ब्राह्मणों से रक्त संबंध द्वारा घुल मिल गए । स्वामी जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । उन्होने अपर प्राईमरी को परीक्षा सन् 1902 में 95 प्रतिशत अंक से प्राप्त कर पास की । सन् 1904 में उन्होंने मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की । पूरे प्रांत में वे सातवें स्थान पर थे । उन्हें छात्रवृत्ति भी मिला था । गाजीपुर के जर्मन मिशन स्कूल दाखिला मिला । 1906 ई 0 में दशम कक्षा में पहुंचे । अध्यापकों की धारणा थी कि यह लड़का अगले साल मैट्रिक की परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आएगा , पर भविष्य किसी और तरफ खींच रहा था । भारतीय ग्राम व्यवस्था सदियों से आत्मनिर्भर स्थिर और जटिल उत्पादन प्रणालीयुक्त तथा सोपानवत् सामाजिक विभाजन पर आधारित रही है । अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के बाद नये तरह के भूमि प्रबंध और औपनिवेशिक जरूरत पर आधारित शिक्षा और विचारधाराओं का प्रभाव कालांतर में भारतीय कृषक जनजीवन पर पड़ने लगा था । लेकिन अपनी आत्मनिर्भर जीवन प्रणाली और रहस्यमय अध्यात्मिक चेतना जड़ और स्थिर भारतीय पितृसत्तात्मक परिवारों पर निर्णायक रूप से छायी थी । दिनभर के कमरतोड़ मेहनत के बाद एक रस जीवन में भजन - कीर्तन और धार्मिक - सामाजिक सांस्कृतिक तीज त्यौहार कुछ सुखद क्षण ला देते हैं । इन अमानवीय स्थितियों से मुक्ति को छटपटाहत , अभावग्रस्त जड़ जीवन स्थितियों से अपनी कुण्ठा और रहस्यमय आध्यात्मिक दुनिया की रोमांचकारी कहानियां जीवन के प्रति वैराग्य को जन्म देती है । हर मेधावी और संवदेनशील , कुशाग्न बुद्धिवाला नौजवान उस दिशा की तरफ आकर्षित होता है और वैराग्य में ही उसे मुक्ति का एकमात्र मार्ग दिखायी देता है । बालक नवरंग राय को उसने आकर्षित किया तो कुछ भी अस्थाभाविक नहीं है । सन्यास की तरफ बढ़ने और व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग की तलाश के विचार नवरंग राय के मन में तूफान की तरह घुमड़ने लगे । किशोर नवरंग राय कुशाग्र बुद्धि तो थे हो , आधुनिक शिक्षा के पहले पायदान पर ही उनकी मेधा और योग्यता प्रमाणित हो चुकी थी । मिडिल स्कूल की परीक्षा में योग्यता सूची के साथ उतीर्ण होने से बालक का आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था । इस बड़े हुए आत्मविश्वास ने उन्हें अपनी सामाजिक , पारिवारक परिवेशजन्य अमानवीय स्थितियों से विद्रोह के लिए तैयार कर दिया । घर से पहले पलायन ने ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन नैराश्यपूर्ण भौतिक स्थितियों में महत्वपूर्ण कारक को भूमिका निभायो और पर से पलायन उस बालक का पहला विप्लव था । यह विप्लव सड़ते हुए परिवेश मुक्ति को चाह से उपजा था । मुक्ति के लिए भारतीय हिन्दू मानस अभी तक जिस मार्ग का अनुसरण करता रहा है यही नवरंग राय ने भी किया , और वह निकल पड़े सन्यास की खोज में । 18 वर्ष का किशोर नवरंग भविष्य की चिंता से मुक्त काशी जा पहुंचा और फिर शुरू हुआ महाअनुसंधान साधना और संघर्ष का महासमर । काशी से पैदल प्रयाग , चित्रकूट , ग्वालियर , उज्जैन , महाकालेश्वर , नर्मदा , मधुरा , हरिद्वार , ऋषिकेश , बद्रीनाथ सबको किशोर नवरंग ने अपने दो पैरों से नाप डाला पर जिस मन्त योगी की तलाश में वे निकले थे वह मृग मरीचिका ही साबित हुआ । संतो - सन्यासियों की जो कल्पना उनके मन में थी वैसे लोग उन्हें कहीं नहीं दिखे । हाँ , इस दरम्यान नर्मदा घाटी के नरसिंहपुर जिला में उनकी मुलाकात एक कर्मवदांती महापुरुष से हुई । वेदांती जी चार प्रकार के दान करते थे साधु , फकीरों या भूखे - नंगों को अन्न - वस्थ , बीमारों को मुफ्त दवा , ग्रन्थ संग्रह का ज्ञान दान और ऑनरेरी मजिस्ट्रेट की हैसियत से निष्पक्ष सुलभ न्याय दान । वेदांती जी का जीवन वेदांतमय था , व्यवहारिक था । स्वामी जी पर उनकी कर्मपूजा का प्रभाव पड़ा और उस प्रभाव ने आगे चलकर लोकसंग्रह , परोपकार और सम्मान की मुक्ति की राह की तरफ उन्हें खींचा । इन यात्राओं के बाद उन्होंने काशी में रहकर व्याकरण दर्शन आदि संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन करने का निर्णय किया । स्वामी जी लिखते है - " जंगल , पहाड़ों को खाक खूब छानी , योगी - तपस्वी की खोज बहुत की , भटके भी काफी , मगर हाथ कुछ न आया । भगवान तो अभी दूर के दूर ही रहे । इसलिए चलो शास्त्रों का मंथन करें और देखे उनमें क्या है ? " स्वामीजी
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